पितृपक्ष का महत्व
भाद्रपद माह की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक का समय श्राद्ध कर्म के रुप में जाना जाता है । इस पितृपक्ष अवधि में पूर्वजों के लिए श्रद्धा पूर्वक किया गया दान तर्पण रुप में किया जाता है । पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है । हिंदु धर्म मान्यता के अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र–पौत्रों के यहां आते हैं । श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं । श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में वर्णन मिलता है । श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है । पितरों को आहार और अपनी श्रद्धा पहुंचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है । मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी औध्र्व दैहिक क्रिया–कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को ‘पितर’ कहा जाता है ।
शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है । जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्माें के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है । यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग रुप में होती है । पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है ।
अमावस्या का महत्व
पितरों के निमित्त अमावस्या तिथि में श्राद्ध व दान का विशेष महत्व है । सूर्य की सहस्र किरणों में से अमा नामक किरण प्रमुख है जिस के तेज से सूर्य समस्त लोकों को प्रकाशित करता है । उसी अमावस्या में तिथि विशेष को चंद्र निवास करते हैं । इसी कारण से धर्म कार्याें में अमावस्या को विशेष महत्व दिया जाता है । पितृगण अमावस्या के दिन वायु रूप में सूर्यास्त तक घर के द्वार पर उपस्थित रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा करते हैं । पितृ पूजा करने से मनुष्य आयु, पुत्र, यश कीर्ति, पुष्टि, बल, सुख व धन धान्य प्राप्त करते हैं ।
श्राद्ध संस्कार
मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी औध्र्व दैहिक क्रिया–कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को ‘पितर’ को पितर कहा जाता है । वायु पुराण में लिखा है कि ‘मेरे पितर जो प्रेतरुप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से वह तृप्त हों । साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चाहे वह चर हो या अचर हो, मेरे द्वारा दिए जल से तृप्त हों’ । श्राद्ध के मूल में उपरोक्त श्लोक की भावना छिपी हुई है । ऐसा माना जाता है कि श्राद्ध करने की परम्परा वैदिक काल के बाद से आरम्भ हुई थी । शास्त्रों में दी विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मंत्रों के साथ दी गई दान–दक्षिणा ही श्राद्ध कहलाता है । जो कार्य पितरों के लिए ‘श्रद्धा’ से किया जाए वह ‘श्राद्ध’ है ।
श्राद्ध का कारण
प्राचीन साहित्य के अनुसार सावन माह की पूर्णिमा से ही पितर पृथ्वी पर आ जाते हैं । वह नई आई कुशा की कोंपलों पर विराजमान हो जाते हैं । श्राद्ध अथवा पितृ पक्ष में व्यक्ति जो भी पितरों के नाम से दान तथा भोजन कराते हैं अथवा उनके नाम से जो भी निकालते हैं, उसे पितर सूक्ष्म रुप से ग्रहण करते हैं । ग्रंथों में तीन पीढ़ियों तक श्राद्ध करने का विधान बताया गया है । पुराणों के अनुसार यमराज हर वर्ष श्राद्ध पक्ष में सभी जीवों को मुक्त कर देते हैं । जिससे वह अपने स्वजनों के पास जाकर तर्पण ग्रहण कर सकते हैं । तीन पूर्वज पिता, दादा तथा परदादा को तीन देवताओं के समान माना जाता है । पिता को वसु के समान माना जाता है । रुद्र देवता को दादा के समान माना जाता है । आदित्य देवता को परदादा के समान माना जाता है । श्राद्ध के समय यही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं । शास्त्रों के अनुसार यह श्राद्ध के दिन श्राद्ध कराने वाले के शरीर में प्रवेश करते हैं अथवा ऐसा भी माना जाता है कि श्राद्ध के समय यह वहाँ मौजूद रहते हैं और नियमानुसार उचित तरीके से कराए गए श्राद्ध से तृप्त होकर वह अपने वंशजों को सपरिवार सुख तथा समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं । श्राद्ध कर्म में उच्चारित मंत्रों तथा आहुतियों को वह अपने साथ ले जाकर अन्य पितरों तक भी पहुंचाते हैं । श्राद्ध के हर कर्म में तिल की आवश्यकता होती है । श्राद्ध पक्ष में दान करने वाले को कुछ भी दान करते समय हाथ में काला तिल लेकर दान करना चाहिए । पितरों के निमित्त गुड़ एवं नमक का दान करना चाहिए । गरूड़ पुराण के अनुसार नमक के दान से यम का भय दूर होता है । पितरों को धोती एवं दुपट्टा का दान करना उत्तम माना गया है । वस्त्र दान से यमदूतों का भय समाप्त हो जाता है । पितरों की प्रसन्नता हेतु इन चांदी, चावल, दूध वस्तुओं का दान किया जा सकता है
पितृ दोष से मिलेगी मुक्ति
ज्योतिष शास्त्र में सूर्य, चंद्र की पाप ग्रहों जैसे राहु और केतु से युति को पितृ दोष के रूप में व्यक्त किया गया है । इस युति से मनुष्य जीवन भर केवल संघर्ष करता रहता है । मानसिक और भावनात्मक आघात जीवन पर्यंत उसकी परीक्षा लेते रहते हैं । पितृ पक्ष में अधोलोखित मंत्रों से, या किसी एक मंत्र से काला तिल, चावल और कुशा मिश्रित जल से तर्पण देने से घोर पितृ दोष भी शांत हो जाता है । १. ॐ पितृदोष शमनं हीं ॐ स्वधा २. ॐ क्रीं क्लीं सर्वपितृभ्यो स्वात्म सिद्धये ॐ फट !! ३. ॐ सर्व पितृ प्रं प्रसन्नो भव ॐ !! ४. ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः पितामहेभ्यः स्वाधायिभ्यः स्वधानम प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधानमः अक्षन्न पितरो मीमदन्त पितरोतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्दध्वम ॐ पितृभ्यो नम ।
कौए को अर्पित भोजन
श्राद्ध पक्ष में कौओं को आमंत्रित कर उन्हें श्राद्ध का भोजन खिलाया जाता है । इसका एक कारण यह है कि हिन्दू पुराणों ने कौए को देवपुत्र माना है । एक कथा है कि, इन्द्र के पुत्र जयंत ने ही सबसे पहले कौए का रूप धारण किया था । त्रेता युग की घटना कुछ इस प्रकार है कि, जयंत ने कौऐ का रूप धर कर माता सीता को घायल कर दिया था । तब भगवान श्रीराम ने तिनके से ब्रह्मास्त्र चलाकर जयंत की आँख को क्षतिग्रस्त कर दिया था । जयंत ने अपने कृत्य के लिये क्षमा मांगी तब राम ने उसे यह वरदान दिया की कि तुम्हें अर्पित किया गया भोजन पितरों को मिलेगा । बस तभी से श्राद्ध में कौओं को भोजन कराने की परंपरा चल पड़ी है ।